🌾 सतपुड़ा में बाह आहत्या यात्रा 🌾
बाह आहत्या यात्रा सतपुड़ा क्षेत्र के आदिवासियों की एक प्राचीन और पवित्र परंपरा है। यह यात्रा आमतौर पर फसल कटाई के बाद आयोजित की जाती है। आदिवासी समाज इस दिन अपने देवता बाह आहत्या देव की पूजा करता है और सालभर की मेहनत के लिए आभार व्यक्त करता है।

📖 बाह आहत्या देव की कथा और महत्व
लोककथाओं के अनुसार, बाह आहत्या देव प्रकृति के रक्षक और फसल के देवता हैं। माना जाता है कि वे जल, भूमि और समृद्धि के प्रतीक हैं। जब खेतों में नई फसल आती है, तो आदिवासी बाह आहत्या देव को धन्यवाद देते हैं और उनकी पूजा कर खुशहाली की कामना करते हैं।
यह पर्व केवल पूजा नहीं, बल्कि प्रकृति और मेहनतकश जीवन के प्रति कृतज्ञता और सम्मान का प्रतीक है। पुराने समय में इसे “अस्तोमा पर्व” कहा जाता था, जिसका अर्थ है “अंधकार से प्रकाश की ओर।”
🌿 पूजा विधि और कार्यक्रम
पूजा का आयोजन गांव के देवस्थान या खुले स्थान पर किया जाता है। इसमें पूरे गांव के लोग भाग लेते हैं:
- गांव की महिलाएँ धान, अनाज और फल एकत्र करती हैं।
- देवस्थान की सफाई कर धूप, फूल और चावल से पूजा होती है।
- भुमका (गांव का पुजारी) बाह आहत्या देव का आह्वान करता है।
- पूजा के बाद लाल और सफेद झंडा लेकर यात्रा (जलूस) निकाला जाता है।
- संगीत, नृत्य और लोकगीतों के साथ सामूहिक भोज आयोजित होता है।
🔥 सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
यह पर्व एकता, सहयोग और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। इस दिन समाज के सभी लोग — बुजुर्ग, युवा, महिलाएँ और बच्चे — एक साथ प्रकृति और देवता के प्रति आभार प्रकट करते हैं।
यह त्योहार हमें याद दिलाता है कि मनुष्य और प्रकृति का संबंध अटूट है, और प्रकृति की रक्षा करना ही सच्चा धर्म है।
🎶 लोकगीत और नृत्य
बाह आहत्या यात्रा के दौरान गाए जाने वाले लोकगीतों में मेहनत, फसल, प्रेम और आस्था की झलक मिलती है। ढोल, मांदर और बांसुरी की ध्वनियाँ पूरे वातावरण को आनंदमय बना देती हैं।
“धरती माता हंसी, फसल आई, बाह देव की जय सबने गाई। लाल झंडा जब हवा में लहराया, अपनी संस्कृति फिर याद दिलाया।”
🏔️ बाह आहत्या देव और अन्य लोक देवता
आदिवासी समाज में बाह आहत्या देव के साथ-साथ बाह लहुरू, बुढ़ा कडसु, तिन्तिनरु, सुरजु जैसे कई लोक देवताओं की पूजा की जाती है। ये देवता सतपुड़ा की सुरक्षा, स्वास्थ्य और समृद्धि के रक्षक माने जाते हैं।
🚩 अस्मिता और पहचान
इस यात्रा के दौरान आदिवासी समाज लाल और सफेद झंडा लेकर यात्रा निकालता है, जो शक्ति और शांति दोनों का प्रतीक है। यह उनकी संस्कृति, परंपरा और अस्तित्व की पहचान है।
आधुनिक समय में भी यह परंपरा जीवित है और नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ती है। यह पर्व बताता है कि —
“अपनी संस्कृति ही अपनी पहचान है।”
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